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तीन चार दिन ऐसे ही बीते। सुबह का संन्यास... दोपहर की विरक्ति और साँझ की उदासी मुक्ति कहीं नहीं थी। बोझिल साँस और हताश मन लिए वह खिड़कियों से बाहर झाँकता, हर बार एक तिक्तता.... उसे घेर लेती। सुबह उठता तो अनमना सा आलोक लिए सूरज दीख पड़ता। मानों जबरन किसी ने उगने को भेज दिया हो। देखते ही देखते और घर के कामकाज करते हुए दोपहर हो जाती। दबे पाँव शाम चली आती। एक अर्थहीन दिनचक्र चल कर ठहर जाता। मनुष्य का होना इतना निरर्थक कभी न हुआ। मनुष्य न हो तो पंछियों का गाना भी कौन सुने! ऐसा नहीं कि जब मनुष्य नहीं थे...तब पंछी नहीं गाते रहे होंगे! लेकिन उनके गाने को काव्य बनाने वाला तो मनुष्य ही है! हाँ, यह भी सच ही है कि मनुष्य ने इस संसार को कुरूपता अधिक दी है, जहर से भर दिया है। परन्तु इस जहर से बाहर भी वही निकाल सकता है संसार को! अब भी वह उसे सुन्दर बनाए रख सकता है!
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