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हिन्दुत्व व हिन्दू राष्ट्रवाद के सिद्धान्तों पर इससे उत्कृष्ट पुस्तक कदाचित् ही अन्य होगी। यदि कहा जाये कि प्रस्तुत लघु ग्रंथ में श्री सावरकर ने “गागर में सागर” भरने का कार्य किया है, तो यह कथन किञ्चित् मात्र भी अतिश्योक्ति न होगा।
ई० १९३७ में रचित यह ग्रंथ सर्वप्रथम ‘हिन्दू' व ‘हिन्दुत्व', इन शब्दों को अकाट्य रूप से परिभाषित करते हुए रूढ़िवादी जाति-व्यवस्था व अस्पृश्यता के उन्मूलन, संख्याबल के महत्त्व व एतदर्थ शुद्धि-आन्दोलन की आवश्यकता, आत्यन्तिक अहिंसावाद की विद्रूपता के सत्य इत्यादि चिर-प्रासंगिक विषयों पर प्रकाश डालता है; साथ ही साथ उल्लिखित समस्याओं के समीचीन हल हेतु रूपरेखा प्रस्तुत कर मार्गदर्शिका का अत्यावश्यक कार्य भी करता है।
मेरे अनुसार तो, यह पुस्तक ही नहीं अपितु स्वातन्त्र्यवीर श्री सावरकर कृत सम्पूर्ण साहित्य राष्ट्र की अमूल्य निधि है। इन पुस्तकों को प्रत्येक राष्ट्रभक्त को न केवल पढ़ना-पढ़ाना चाहिए प्रत्युत् इनमें उल्लिखित बातों का अनुसरण कर राष्ट्रहितार्थ यज्ञ में आहूति भी अवश्य देनी चाहिए।
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